नाखून क्यों बढ़ते हैं |
लेखक के बारे में
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म आरत दुबे के छपरा, बलिया (उत्तर प्रदेश) में 1907 ई. में हुआ। ये संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बाँग्ला आदि भाषाओं के विद्वान थे इनकी रचनाओं में विचार की तेजस्विता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का अनोखा संगम परिलक्षित होता है। इस प्रकार इनमें एकसाथ कबीर, तुलसी और रवीन्द्रनाथ एकाकार हो उठते हैं। इनकी सांस्कृतिक दृष्टि अपूर्व है। इनकी प्रमुख रचनाएँ
निबंध संग्रह:- ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’, ‘विचार और वितर्क, ‘कुटज’, ‘विचार प्रवाह’, ‘आलोक पर्व’, ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद’
उपन्यास:– ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’, ‘अनामदास का पोथा’ ।
आलोचना – साहित्येतिहास :- ‘सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘मध्यकालीन बोध का स्वरूप, ‘नाथ संप्रदाय’, ‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘हिन्दी साहित्य का आदि काल’ ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका, ‘हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास’ ।
उपन्यास:- ‘संदेशरासक’, ‘पृथ्वीराजरासो’, ‘नाथ-सिद्धों की बानियाँ |
पत्रिका संपादन:- ‘विश्व भारती’ (शांति निकेतन)
पाठ का सारांश
नाखून क्यों बढ़ते हैं’ शीर्षक निबंध को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने मनुष्य में पाशविक वृत्ति के बढ़ने और मनुष्य को इसे घटाने के प्रयत्न को व्यक्त किया है। लेखक कहते हैं कि नाखून का बढ़ना एक सहज वृत्ति है, परन्तु मनुष्य के द्वारा उसका काटना भी एक सहजात वृत्ति है।
इस कहानी में लेखक अपने संस्कार से खुश होते हैं कि हमारा संस्कार हमें कभी बुरा बनने नहीं देगी। अनजाने में भी यह हमारी रक्षा करती है। आजादी तो हमें है परन्तु हम अपने ही अधीन हैं। अपने अधीन का मतलब है कि हमारा संस्कार हमें वह सब कुछ करने से रोकता है, जो प्राणिमात्र को कष्ट देता है । वह हमें गलत होने या गलत करने से रोकता है। कभी-कभी लेखक उदास हो जाते हैं। उन्हें निराशा घेर लेती है। वे सोचते हैं कि अगर मनुष्य मनुष्य हो जाता तो हिरोशिमा और नागासाकी जैसे कुकृत्य कभी नहीं करता, वह मानव का दुश्मन कभी नहीं बनता। मनुष्य परमाणु परीक्षण मानव की भलाई के लिए करता, मानव के विनाश के लिए नहीं। वे कहते हैं कि मनुष्य त्याग और प्रेम के पाठ को क्यों नहीं समझ पाता है ?
कहानी के अंत में लेखक फिर से आशावादी होते हैं। वे कहते हैं कि नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना ‘स्व’ निर्धारित आत्म-बंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाना चाहती है। मनुष्य की पाशविक वृत्तियाँ बढ़ेगी पर मानव हमेशा उस पर नियंत्रण करेगा, नाखून काटकर ।