पर्यावरण दो शब्दों परि + आवरण के मेल से बना है। पर्यावरण का अर्थ है हमारे चारों तरफ का प्राकृतिक आवरण पृथ्वी के समस्त प्राणी अपने जीवन क्रम को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए संतुलित पर्यावरण पर निर्भर करते हैं। संतुलित पर्यावरण में सभी तत्त्व एक निश्चित अनुपात में विद्यमान होते हैं, किंतु जब पर्यावरण में सभी तत्त्व एक निश्चित अनुपात से बढ़ या घट जाते हैं, विषैले तत्त्वों का उत्सर्जन बढ़ जाता है, तब वह पर्यावरण जीव-जगत के लिए घातक हो जाता है। पर्यावरण में होनेवाले इस घातक परिवर्तन को ‘पर्यावरण प्रदूषण’ कहा जाता है।
‘मनुष्य’ इस जीव-जगत का सबसे कीमती तोहफा है। मनुष्य जीवन की रचना आत्मा और बुद्धि के उच्चतम धरातल पर हुई है। इस प्रकृति का नायक और नेता वही है। उसी के नेतृत्व में पूरी दुनिया को चलना है। इसलिए इस प्रकृति का स्वरूप कैसा होगा यह मनुष्य के व्यवहार और विवेक पर सबसे ज्यादा निर्भर करता है।
वास्तव में दुनिया आज जहाँ पहुँच चुकी है, वहाँ पर्यावरण प्रदूषण की चिंता सबसे ज्यादा दिल दहला देनेवाली समस्या के रूप में हमारे सामने उपस्थित है। आज पर्यावरण प्रदूषण को हम रोज महसूस कर रहे हैं। ध्वनि, हवा, पानी, भोजन सबकुछ विषाक्त होता जा रहा है। अनेक तरह के रोग और व्याधियाँ अपना साम्राज्य स्थापित कर चुकी हैं। और इन सब की जड़ में मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रकृति सबसे बड़ा कारण बनी हुई है। यानी मनुष्य, जिसे प्रकृति का संरक्षण करना चाहिए, वही इसका भक्षण कर रहा है।
प्रदूषण के विभिन्न रूप हैं जिनमें वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण प्रमुख हैं। वायु प्रदूषण सबसे अधिक व्यापक व हानिकारक है। वायुमंडल में विभिन्न गैसों की मात्रा लगभग निश्चित रहती है और अधिकांशतः ऑक्सीजन और नाइट्रोजन ही होती है। श्वसन, अपघटन और सक्रिय ज्वालामुखियों से उत्पन्न गैसों के अतिरिक्त हानिकारक गैसों की सर्वाधिक मात्रा मनुष्य के कार्यकलापों से उत्पन्न होती है। इनमें लकड़ी, कोयले, खनिज तेल तथा कार्बनिक पदार्थों के ज्वलन का सर्वाधिक योगदान रहता है। इनके अतिरिक्त मनुष्य पौधों और प्राणियों को रोग से बचाने के लिए और हानिकारक जीवों के विनाश के लिए अनेकानेक रसायनों का प्रयोग कर रहा है। उद्योगों में भी असंख्य रसायनों के प्रयोग में वृद्धि हो रही है। जो तत्त्व कभी पर्यावरण में विद्यमान नहीं थे, ऐसे सैकड़ों रसायन मनुष्य प्रतिवर्ष संश्लेषित कर रहा है।
‘जल ही जीवन है’ यह वाक्य बच्चा बच्चा तक जानता है। पेड़-पौधे भी आवश्यक पोषक तत्त्व जल से ही ग्रहण करते हैं। जल में अनेक कार्बनिक अकार्बनिक पदार्थ, खनिज लवण तथा गैसें घुली होती हैं। यदि इन तत्त्वों की मात्रा में असंतुलन हो जाए, तो जीवन प्रदायिनी मौत का कारण बन जाता है। जल प्रदूषण के अनेक कारण हैं। पीने योग्य जल का प्रदूषण रोग करनेवाले जीवाणु, विषाणु, कल-कारखानों से निकले हुए वर्जित पदार्थ, कीटनाशक पदार्थ व रासायनिक खाद से होता है। बड़े बड़े महानगरों में भारी मात्रा में गंदे पदार्थ नदियों के पानी में प्रवाहित किए जाते हैं, जिससे इन नदियों का जल प्रदूषित होकर हानिकारक बनता जा रहा है।
महानगरों में अनेक प्रकार के वाहन, लाउडस्पीकर, बाजे एवं औद्योगिक संस्थानों की मशीनों के शोर ने -प्रदूषण को जन्म दिया है। ध्वनि प्रदूषण से न केवल मनुष्य की श्रवण शक्ति का हास होता है, बल्कि उसके मस्तिष्क पर भी इसका घातक प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार आधुनिक युग में प्रदूषण की समस्या ने पर्यावरण की पूरी पारिस्थतिकी को असंतुलित कर दिया है। यदि इस समस्या का निराकरण समय रहते न किया गया, तो इसके दुष्परिणाम हाहाकारी होंगे। आज ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अनेक शहर और देश विनाश के कगार पर हैं। नए-नए रोग उत्पन्न हो रहे हैं। मनुष्य को अब कुछ करना ही होगा।
यद्यपि विश्व के सभी देश प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए आगे आ रहे हैं, फिर भी औद्योगिक विकास, नगरीकरण, वनों का विनाश और जनसंख्या में अतिशय वृद्धि होने के कारण यह समस्या निरंतर गंभीर होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनेक संस्थाओं, जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व पर्यावरण संस्थान, अंतर्राष्ट्रीय वन संरक्षण संस्थान ने प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिए अनेक उपाय किए हैं, फिर भी अभी तक आशाजनक परिणाम सामने नहीं आए हैं।