वर्षा ऋतु को ऋतुओं की रानी कहा जाता है। वैसे तो कुछ न कुछ महत्त्व हर ऋतु का होता है, परन्तु वर्षा ऋतु की अपनी अलग विशेषता है। सारे जीव-जन्तु, पेड़-पौधे नदी-नाले सभी वर्षा ऋतु की प्रतीक्षा वही अधीरता से करते हैं। वर्षा ऋतु के आये बिना सभी कुछ जैसे जीवनहीन हो जाते हैं। यहाँ तक कि वर्षा के बिना धरती की छाती तक में दरारें पड़ जाती हैं। ऐसा है तुका महत्व ग्रीष्म ऋतु सारे अंग-अंग के तन मन को झुलसा जाती है। वर्षा ऋतु आती है। तो सबको सहलाती है, दुलराती है और चप्पे चप्पे में नव-जीवन का संचार कर देती है।
आषाढ़ शुरू होते ही आकाश में काले सफेद बादलों की धमाचौकड़ी शुरू हो जाती है। गर्जन तर्जन होने लगता है। बौछारें पड़ने लगती हैं। बिजलियाँ चमकने लगती हैं। सावन भादो वर्षा रानी के यौवन के दिन होते हैं। उन दिनों रानी का तमाम ताम-झाम हर कहीं दिखाई देने लगता है। दसियों दसियों दिन तक लगातार झड़ी लगी रहती है। आकाश चूता रहता है। सात घोड़ों के रथ पर चलने वाले भगवान सूर्य बंदी बने रहते हैं।
वर्षा पाकर धरती हरे परिधान में सज-सँवर कर सामने आती है और सोना उगलने लगती है। पेड़-पौधे हरे हो जाते हैं। मोरों का तो कुछ कहना ही नहीं। उनके लिए तो वर्षा में नाच नाचना ही एक काम रह जाता है।
परन्तु, एक ओर जहाँ ऋतु की इतनी महत्ता और उपयोगिता है, वहीं दूसरी ओर वर्षा की अपनी कुछ खामियाँ भी है जिन्हें नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। वर्षा आती है तो जहाँ-तहाँ हर जगह कीचड़ कादो भर जाता है। रास्ते की कठिनाई से और भींगने के डर से यातायात एक तरह से ठप ही हो जाता है। कीड़ों-मकोड़ों, सॉप-विच्छुओं का उपद्रव इतना बढ़ जाता है कि आदमी परेशान हो उठता है। इससे भी बढ़कर वर्षा जब बेशुमार होने लगती है तो नदी नाले सभी उफन उठते हैं। अपने इर्द-गिर्द की कोसों की धरती जलमग्न कर देते हैं। बाढ़ आती है। मकान गिरते हैं। लोग दबकर मरते हैं। कहीं-कहीं तो ढोर-डंगर तक वह जाते हैं। बोयी हुई फसलें पानी के नीचे सड़कर मिट्टी बन जाती है। बाढ़ उतरती है, परन्तु उसकी संहार-लीला
यहीं से समाप्त नहीं हो जाती। बाढ़ के बाद आती है महामारी। इतनी खामियों के बावजूद वर्षा ऋतु हमें प्रिय है, उपयोगी है और आवश्यक ही नहीं, बल्कि जीवन के लिए वर्षा का आना अनिवार्य है। इसलिए वर्षा ऋतु हमारे लिए स्पृहणीय और अभिनन्दनीय है।